इंडिया न्यूज, नई दिल्ली : डीडीए ने दिल्ली सरकार को वृक्षारोपण के लिए जमीन उपलब्ध कराने के मामले में दो टूक शब्दों में ना कह दिया है। इसके साथ ही डीडीए ने कहा कि 42 साल पुराने द फारेस्ट कंजर्वेशन एक्ट में बदलाव करना जरूरी है। उसने आगे कहा कि जब उसके पास जमीन ही नहीं है तो जमीन देने का सवाल ही नहीं उठता। मुख्य सचिव को दो बार पत्र लिखने के बाद डीडीए ने अब केंद्रीय पर्यावरण सचिव को भी एक पत्र लिखकर सारी स्थिति स्पष्ट कर दी है। दिल्ली के संदर्भ में द फारेस्ट कंजर्वेशन एक्ट 1980 के दिशा निदेर्शों में बदलाव करने भी आग्रह किया है।
साथ ही यह भी कह दिया है कि अब अगर वृक्षारोपण के लिए और जमीन दी जाएगी तो फिर दिल्ली से जुड़ी विकास परियोजनाओं पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। डीडीए उपाध्यक्ष मनीष गुप्ता की ओर से केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन की सचिव लीना नंदन को पत्र लिखकर कहा गया है कि जमीन की कमी होने के कारण द फारेस्ट कंजर्वेशन एक्ट 1980 के तहत प्रतिपूरक वृक्षारोपण के लिए भूमि उपलब्ध कराना मुश्किल हो गया है। जमीन के जो छोटे छोटे टुकड़े बचे हैं, वे राजधानी के विकास और इसकी अन्य जरूरतों के लिए हैं।
मास्टर प्लान के तहत जो 15 प्रतिशत क्षेत्र इस उद्देश्य के निमित्त रखा गया है, वह भी 20 प्रतिशत तक वृक्षारोपण से भर चुका है।
पत्र में बताया गया है कि 1990 के बाद से दिल्ली में कोई भूखंड अधिग्रहण नहीं किया गया है। यह भी बताया गया है कि द स्टेट आफ फारेस्ट रिपोर्ट के नए संस्करण के अनुसार दिल्ली का हरित क्षेत्र अब 23 प्रतिशत तक पहुंच चुका है। इसीलिए 42 साल पहले बनाए गए द फारेस्ट कंजर्वेशन एक्ट के नियमों में बदलाव करना बहुत जरूरी है। यह भी ध्यान रखना होगा कि दिल्ली राज्य नहीं बल्कि शहरी क्षेत्र है। लिहाजा, प्रतिपूरक वृक्षारोपण के लिए दिल्ली को अन्य राज्यों में भी जगह दी जा सकती है।
मौजूदा स्थिति में एक के बदले 10 पेड़ लगाने की नीति अप्रासंगिक हो गई है। जब यह नीति बनाई गई थी, तभी दिल्ली का हरित क्षेत्र बहुत कम था जबकि अब काफी हो चुका है। इसलिए इसको भी बदला जाना चाहिए। हरित क्षेत्र के साथ साथ दिल्ली की विभिन्न बुनियादी जरूरतें और विकास परियोजनाएं भी उतनी ही महत्वपूर्ण हैं। अगर इसे नजरअंदाज किया गया तो इसका नकारात्मक प्रभाव पडेÞगा।
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