नई दिल्ली: राजधानी दिल्ली में अकेले भटकतीं हुई रूपमणी को तीन साल पहले किसी ने नांगलोई के एक वृद्धाश्रम में छोड़ा था। झुकी हुइ कमर, कापंते हुए हाथ और चेहरे की झुर्रियों से अपनी लाचारी को छुपाने की कोशिश करती हुई रूपमती अपनी जवानी को याद करते हुए अक्सर रो देती हैं। इस मां ने जिस बेटे के सारे नखरे उठाए उसे पाल पोस कर इतना बड़ा किया, वो बेटा अपनी मां का बुढ़ापे का सहारा तक नहीं बना सका।
ये सिर्फ एक मां की नहीं बल्कि कई ऐसे ही बुजुर्गों की कहानी है, जो अपनों के तिरस्कार के कारण वृद्धाश्रमों में रह रहे हैं। आज से पितृ पक्ष शुरू हो रहा है जिसमें परिवार अपने पितरों के तर्पण और उनकी आत्मा की शांति के लिए विधान करता है।
ये सिर्फ रूपमती की नहीं बल्कि कई बुजुर्गों की कहानी है, जो अपनों के तिरस्कार के कारण वृद्धाश्रमों में रह रहे हैं। आज से पितृ पक्ष शुरू होने जा रहे हैं। इसमें परिवार अपने पितरों के तर्पण और उनकी आत्मा की शांति के लिए विधान करता है। लेकिन बड़ी संख्या में ऐसे भी लोग हैं जिनको अपनों ने बुजुर्गों को बेसहारा कर दिया है। समाज के इस विरोधाभास पर कभी कबीर दास ने तंज भी किया था कि जिंदा बाप कोई न पूजे, मरे बाद पुजवाया…।
लगभग एक साल पहले केरल के करुणाकरन अपने बेटे के साथ दिल्ली आए थे। उन्होंने बताया कि वह पहाड़गंज के एक होटल में रूके थे। उनके बेटे ने कहा कि नोएडा में उसे किसी से साढ़े सात लाख रुपये लेने हैं। वह यह कहकर चला गया, लेकिन आज तक वापस नहीं आया। वह अपने आंसूओं को पोछते हुए कहते हैं कि जिस बेटे को मैंने उंगली पकड़कर चलना सिखाया था वह मुझे अनजान शहर में अकेला और बेसहारा छोड़ गया। भगवान ऐसी औलाद किसी को भी न दे।
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