India News(इंडिया न्यूज़), Dwarka: द्वारका नगरी, जिसका निर्माण ब्रह्माण्ड के शिल्पकार विश्वकर्मा ने किया था और जिसे स्वयं नारायण भगवान कृष्ण ने बसाया था, भगवान के अपने परमधाम जाते ही डूब गई। आज उसी द्वारका को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नया रूप देने की कोशिश कर रहे हैं। इसी क्रम में आज यानी रविवार को प्रधानमंत्री मोदी ने ओखा को द्वारका शहर से जोड़ने वाले केबल ब्रिज का उद्घाटन किया। उन्होंने भगवान कृष्ण को समर्पित करते हुए इस पुल का नाम सुदर्शन ब्रिज रखा। इस पुल का शिलान्यास खुद पीएम मोदी ने अक्टूबर 2017 में किया था।
आज यह जानने का सही मौका है कि भगवान कृष्ण की द्वारका कैसे बनी और वह समुद्र में कैसे डूब गई। द्वारका नगरी के बसने और नष्ट होने की कथा श्रीमद्भागवत और गर्ग संहिता में विस्तार से मिलती है। इन ग्रंथों की मानें तो करीब 5200 साल पहले मथुरा की जनता मगध राजा जरासंध के हमलों से परेशान थी। हालाँकि, जरासंध को भगवान कृष्ण ने 16 बार हराया था। इसके बावजूद 17वीं बार उसने मगध में 101 ब्राह्मणों को पाठ के लिए बैठाया और मथुरा पर फिर से आक्रमण कर दिया। ऐसे में भगवान कृष्ण ने विश्वकर्मा को समुद्र के बीचों-बीच द्वारका नगरी बसाने का आदेश दिया और रातोंरात वे सभी लोगों के साथ द्वारका पहुंच गए।
यहीं पर भगवान कृष्ण का नाम रणछोड़ राय रखा गया था। दूसरी ओर, जब मथुरा के लोग अगली सुबह उठे तो उन्होंने खुद को एक नई जगह पर पाया। एक ऐसा शहर जो स्वर्ग जैसा खूबसूरत था, लेकिन वहां से निकलने का कोई रास्ता नहीं था। ऐसे में लोग आपस में पूछने लगे कि दरवाजा कहां है, दरवाजा कहां है। यही नाम बाद में द्वारका हो गया। ये तो हुई द्वारका के बसने की कहानी, अब बताते हैं इसके उजड़ने की कहानी। महाभारत युद्ध के बाद भगवान कृष्ण द्वारिका में शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे थे। इसी दौरान भगवान कृष्ण के पुत्रों ने अपराध किया। श्रीमद्भागवत कथा के अनुसार नारद, अत्रि, कण्व, व्यास और परासर सहित अन्य ऋषि वन में किसी बात पर चर्चा कर रहे थे।
इसी समय देवपुत्रों ने जाम्बवती के पुत्र साम्ब के पेट पर कपड़े की गठरी बाँधी और उसे स्त्री रूप में वहाँ ले आये। इधर भगवान के पुत्रों ने ऋषियों से पूछा कि यह स्त्री गर्भवती है, इसके पुत्र होगा या पुत्री? जैसे ही ऋषियों ने महिला का भविष्य देखने के लिए अपनी आंखें बंद कीं, सारी हकीकत सामने आ गई। उस समय ऋषियों ने श्राप दिया कि इसके पेट से एक लोहे का पिंड पैदा होगा, जो यदुवंश के विनाश का कारण बनेगा। तभी भगवान के पुत्र भयभीत हो गये और उन्होंने देखा कि साम्ब के पेट पर एक लोहे का पिंड पड़ा हुआ है। ईश्वर के पुत्रों ने इस लोहे की सिल्ली को पीसकर चूर्ण कर दिया और फेंक कर चले गये।
इधर ऋषियों के श्राप से इस लौह पिंड की धूल से एक घास उत्पन्न हुई। बाद में जब द्वारका में गृहयुद्ध की स्थिति उत्पन्न हुई तो लोगों ने इसी घास को हथियार के रूप में इस्तेमाल किया और एक-दूसरे को नष्ट कर दिया। उस समय भगवान भी गरुण पर बैठकर अपने परमधाम को चले गये। और द्वारका नगरी धीरे-धीरे समुद्र में डूबने लगी। श्रीमद्भागवत में कथा है कि इस महाविनाश में 40 से 50 यदुवंशी बचे थे। इनमें से कुछ द्रविड़ क्षेत्र में चले गये जिसे आज आंध्र प्रदेश और तेलंगाना कहा जाता है जबकि कुछ यदुवंशी वापस मथुरा लौट आये। गर्ग संहिता के अनुसार इसके साथ ही भगवान कृष्ण ने यदुवंश के लिए जो श्री अर्जित की थी वह भी चली गई।